पहाड़ के एक गांव में मुट्ठीभर लोग
पहाड़ों से पलायन के 60 वर्षो का लेखा जोखा देखें तो समझ में आता है कि इन 60 वर्षो में अकेले उत्तराखण्ड की एक करोड़ से अधिक आबादी पहाड़ छोड़कर बाहर जा चुकी है, जो बच गये वे 85 लाख हैं.
गांव के ईर्द गिर्द सिरहाने और पांवों की ओर दो तीन कीमी दूर तक छितरे उन सीढ़ीनुमा खेतों के बारे में इस बार अचानक मेरी दिलचस्पी बढ गई। खेतों को दूर दूर तक निहारते हुए यह प्रश्न मेरे जेहन में बार-बार कौंधा कि आखिर इस महाविस्तार में इतने सीढीनुमा खेत किसने बनाये होंगे? अब ये खेत बंजर पडे़ हैं। हमारे शैशव में जिन खेतों पर फसलें लहलहाती थी वहां अब जंगली झाडियॉं और कंटीले पेड़ उग आये है। ऐसा देखना उस आमधारणा के उलट है जो मानती है कि पहले जनसंख्या बहुत कम थी और अब एकाएक विस्फोट की स्थिति में पहुंच गई हैं। फिर ये खेत ऑंखिर बंजर क्यों हो गये? जनसंख्या बढ़ने के साथ उन पर दबाव बढ़ना चाहिए था। पर ये दवाब शून्य ही नही बंजर कर दिये गये हैं। कभी कभी ठहरकर यदि आप नजर डालेंगे तो इस वितान में दूर खडे़ छोटे- छोटे मकानों को देखकर एहसास होगा ये किसी महासभ्यता के ध्वंशावशेष हैं। जो या तो अपनी किसी गलती से यहां छूट गये या इन्हें यकीन है कि इस विशाल उपत्यका में जल्दी ही कोई नई सभ्यता पनाह लेगी और वे वंदनवार सजाकर इस बंजर जमीन के पुर्ननवा होने का जश्न मनायेंगे.
रोजगार के लिए पहाड़ों से शहरों की ओर पलायन के 60 वर्षो का लेखा जोखा देखें तो इतना समझ में आता है कि इन वर्षो में अकेले उत्तराखण्ड की एक करोड़ से अधिक आबादी अन्यत्र चली गई और 85 लाख वहॉं रह गई। लेकिन इन आंकड़ों का स्याह पक्ष उत्तराखण्ड शासन की एक सूचना निदर्शिनी सामने रखती है। इस डायरी में संकलित एक डेटा बताता है उत्तराखण्ड में कुल 16826 गांव हैं। इनमें से आबाद ग्राम 15761 और 1065 गैर आबाद ग्राम हैं। यानि 1065 गांवों में आबादी नहीं है. सरकार भी मानती है कि वे खंडहर और बंजर हो गये हैं।
जो लोग महानगरों की आपाधापी रेलमपेल और कतार कल्चर से उकता गये हैं वे यकीनन यह मान सकते हैं कि शहरों में स्पेश का महाअभाव इन विरानों में नई सभ्यता का अभ्युदय कर सकता है। सुविधाओं की दौड़भाग में सुदंर न सही पहाड़ी कस्बों की ओर लोग दौड़ तो रहें हैं। रुद्रपुर, रामनगर, हल्द्वानी, पंतनगर जैसे सुविधासंपन्न कस्बों में पांच सात सालों में ही कई हजार खाते पीते महानगरों में बसे एन आर आईज अप्रवासी पहाडियों ने घर खरीदे हैं । अभी यह दौड थमी नही है । हाउसिंग कंपनियां आये दिन इन कस्बों में दूर दराज तक पैर पसार रही हैं । जिन खाते पीते अघाये लोगों को यह अहसास हो गया है कि दिल्ली जैसे महानगरों में निकट भविष्य में जीवन यापन और दुष्कर होने वाला है वे इन सुविधा संपन्न गिरि कंदराओं कि जडों में अपने आशियाने सुरक्षित कर रहे हैं ।
शिवालिक फुट हिल्स यानि मध्य हिमालय के गांव वीरान हो रहे हैं। इन्हें इस तरह से मानवीय पलायन ने विरान नही किया है। तपते हिमालय, सूखते वनों उजडते चारागाहों और जलश्रोतों के चलते यह स्थिती हुई है। कुछ लोग इसे उत्तराखंड के ग्रामीण जीवन में आये बडे परिवर्तन के रूप में परिभषित कर रहे हैं, लेकिन जो लोग अब तक पहाड के गांवों में बचे हैं वे हरीमिर्च और धनिया बाजार से लाने का दर्द जानते हैं । इस दर्द को महानगरों में रह रहे वे लोग भी बखुबी समझ सकते हैं जो महासंघर्ष के बाद सर छुपाने की जगह तो पा जाते हैं लेकिन घर में फूल के गमले की जगह का सपना देखते ही नही । पहाड में लोगों के पास छोटे- छोटे ही सही ढेर सारे खेत खलिहान हैं. गरम होते मौसम भूख से जंग में करो या मरो पर उतारु वाइल्ड लाइफ ने इंसान को यहां सब होते हुए भी बंचितों की जमात में खडा कर दिया है। यह तो ठीक से नही कहा जा सकता कि वास्तव में यह पहाडी जीवन में आया कोई परिवर्तन है जिसे स्वीकार करना ही होगा या मौसमी उठापटक है जो जल्द ही ठीक हो जायेगा, लेकिन बंजर होते पहाडी गांवों में बसे लोगों के चेहरे, गांवों की ओर पैर पसारी रही सडकों, मोबाइल और माल क्रांति की तेज बयार में गमगीन नही लगते।
संचार और सड़क जल्दी ही दुर्गम को सुगम भी बना देंगे। इसलिए पहाड़ के एक गांव में मुटठी भर रह गये लोग अभी बंजरों के बीच अकेले भले ही रह गये हों जल्दी ही उन्हें शहरों से खदेड़ दी गयी सभ्यताओं का अभिनंदन करना है। बाबजूद इसके कि वे श्रम और जमीन के होते हुए भी अपने लिए वह कुछ नही उगा सकते सिवाय उसके जो अपने आप उग जाता है। क्योंकि राम के साथी रहे जंगली जीव धार्मिक अभयदान के साथ-साथ भारतीय वन्य जीव कानूनों की छतरी में अबघ्य हैं । वाइल्ड लाइफ,पर्यावरण और धरती की ठेकेदारी कर रही बिरादरी को आबारा कुत्तों को सूखी रोटी खिलाना छोडकर कभी इस तरह की समस्याओं पर भी नजर डालनी चाहिए। ज्वाइंट फारेस्ट मैनेजमैंट जैसे जुमलों से बाहर निकलकर आदमी और जानवर के बीच बढ़ती खाई को कम करने की कोई व्यावहारिक तरकीब निकालनी चाहिए। यह पहाड़ या भारत के किसी एक गांव की समस्या नही वल्कि डैन्सफारेस्ट वाले हर राज्य के ग्रामीण की समस्या है। यह कैसी बिडंबना है कि पहाड़ के जिन गॉंवों में लोग एक दशक पूर्व लंगूर बंदर जैसे जंगली जानवरों के दर्शन करने 4-5 कि.मी. दूर घने जंगलों में जाते थे उनके घर बाग बगीचे खेत खालिहान बंदरों और अन्य जंगली जानवरों से गुलजार हैं। पहाड़ के पलायन ने उसके आधें खेत खलिहान बंजर किये थे और अब आधा काम जानवरों ने कर दिया है। गनीमत है कि इसके बावजूद भी कुछ लोग किसी तरह पहाड़ के गॉंवों में अटके हुए हैं। वे चाहे सरकारी योजनाओं के बूते कुछ दिन सुगम जीवन जीलें लेकिन पहाड़ी गॉवों को बंजर होने से बचाने का उनके पास कोई उपाय नही।
शायद ही किसी ने यह कल्पना की हो कि उत्तराखण्ड के किसी गॉंव की शत-प्रतिशत आबादी पलायन कर गई हो लेकिन पलायन का लेखा जोखा बताता है प्राकृतिक आपदाओं और विस्थापन के परे भी कई गॉव पलायन के चलते उजड़ गये हैं। पहाडों में पर्यावरणीय परिवर्तनों से नये खतरे खडे हुए हैं। जंगल के बेइंतहा दोहन से प्राकृतिक संसाधन समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। परिणामस्वरूप जल संकट के साथ साथ भूखी और कुपित वन बिरादरी का रोष भी लोगों पर बढ़ रहा है। पहाडों से पलायन कर महानगरीय जीवन के घात-प्रतिघात सह रहे लोग शायद महानगरीय त्रासदियों के बीच यह अच्छी तरह समझ गये होंगे कि यहॉ जीवन अब कितनी सुगम है. निश्चय ही कालक्रम की प्रगति पर्यावरणीय नुकसानों के साथ-साथ नई तकनीक के सहारे अब दुर्गम पर्वतीय जनजीवन को काफी सुगम बना चुकी हैं। सड़कें और संचार के महाजंजाल से संवरता दुगर्म पहाड़ अब कई अर्थों में सुगम हो गया है। यह बात दीगर है कि इन सुविधाओं के बीच विरानों में नई सभ्यताओं का क्रंदन भी गूंजने लगी है. यदि समय रहते वे इस क्रंदन को सुन लें तो नई पीढ़ियॉं उनकी शुक्रगुजार हो सकती है। पलायन और संस्कृति के पतन के इस अध्याय में बचने-बचाने के सरकारी प्रयास नगण्य हैं। उत्तराखण्ड की सरकार पर्यावरणीय कानूनी छत्री के तले जानवरों की चिंता में मग्न है लेकिन दुर्गम क्षेत्रों में आम आदमी के जीवन को सुगम बनाने के प्रयास नगण्य हैं।