हिमालय की पुकार
ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित हिमालय वैश्विक तापमान वृद्धि का हिमालय पर पड़ने वाला प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगा है। अब मध्य हिमालय की पहाड़ियों पर हिमपात नहीं होता। टिहरी के सामने प्रताप नगर की पहाड़ियों और उससे जुड़ी हुई खैर पर्वतमाला पर अब बर्फ नहीं दिखाई देती। यही नहीं, भागीरथी के उद्गम गोमुख ग्लेशियर में बर्फ पीछे हट रही है। हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि वर्ष 2030 में गोमुख ग्लेशियर पूर्णतया लुप्त हो जाएगा। यानी गंगा सिर्फ पहाड़ी नालों से पोषित नदी बनकर रह जाएगी। इन नालों में गर्मियों में जब पानी की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, पानी का स्तर न्यूनतम होता है। मैंने गोमुख की यात्रा पहली बार वर्ष1978 में की थी। तब मैं वहां पर एक विस्तृत रेगिस्तान देखकर स्तब् रह गया। मेरे साथ गए गंगोत्री मंदिर के सचिव तीर्थपुरोहित श्री कमलेश कुमार ने, जो कई वर्षो से लगातार वहां जाते रहे हैं, बताया कि पहले ग्लेशियर काफी नीचे तक था।
किसी दूसरे देश से जल आयात नहीं किया जा सकता। अब हमें पानी की तरह बहाने´ के बजाय पानी की तरह बचाने का मुहावरा अपनाना होगा ग्लेशियर पिघलने के कारण अब भागीरथी के बहाव में बहुत कमी आई है। टिहरी में बांध बनने केबाद अब यह पानी भी हरिद्वार से समानांतर गंगा नहर बनाकर दिल्ली की प्यास बुझाने के लिए ले जाया जा रहा है, क्योंकि वहां पर औद्योगिक कचरे के कारण यमुना मैली हो गई है। यह पानी पीने तो 1या, नहाने के योग्य भी नहीं रहा है।
गंगा का महत्व केवल सतह पर बहता हुआ पानी भर नहीं है। बाढ़ के समय में गंगा अपने किनारे के क्षेत्रों में हिमालय से ले जाई गई उपजाऊ मिट्टी बिछा देती थी। गंगा-यमुना दोआब की सोना उगलने वाली धरती इसी मिट्टी से बनी है। इसके अलावा गंगा भूमिगत जल का पुनर्भरण करती थी और इसके स्तर को ऊंचा उठाती थी। टिहरी बांध का प्रभाव हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक के गंगा के बहाव के क्षेत्र पर पड़ेगा। उपजाऊ मिट्टी की भरपाई के लिए किसान अधिक कृत्रिम उर्वरकों और रासायनिकों का उपयोग करेंगे। इससे मिट्टी के कणों की नमी समाप्त होगी और वह धूलकणों में बदल जाएगी। रासायनिक खाद डालकर अधिक पैदावार लेने का तरीका औद्योगिक उत्पादन का तरीका है, जिसमें कच्चे माल और अधिक ऊर्जा का उपयोग कर अधिक उत्पादन किया जाता है। उद्योगों में हम मृत चीजों का उपयोग करते हैं, लेकिन कृषि में वही उपयोग हम जिंदा मिट्टी के साथ कर उसे मृत बना रहे हैं।
मृत मिट्टी की पैदावार मृत ही होगी और उसका उपयोग करने वालों में स्फूर्ति नहीं आ सकती। मिट्टी और पानी में जीवन के बारे में वैज्ञानिक खोजें हुई हैं। इसमें ऑस्ट्रिया के विद्वान शाबर्गर की पुस्तक जिंदा जल´ (लिविंग वाटर) में इसका विस्तृत वैज्ञानिक विश्लेषण है। शाबर्गर ने पाया कि एक पहाड़ी नदी जब सर्पाकार गति से बहती है, तो वह अपने जल को जीवित करती जाती है। इसका स्पष्ट दर्शन गंगा में होता था। जहां मछलियां जाड़े में तो गंगासागर चली जाती थीं और गर्मियों में वापस गोमुख तक आ जाती थीं। अब उनका मार्ग अवरुद्ध हो गया है। हमारे पूर्वजों ने जीवंत जल के महत्व को जाना था और इसलिए उन्होंने हरिद्वार में मृतकों के श्राद्ध तर्पण करने का विधान किया ।
वर्ष 1916 में जब ब्रिटिश सरकार हरकी पौड़ी से ऊपर भीमगोड़ा से गंगा नहर बनाने लगी, तो महामना मदनमोहन मालवीय हरकी पौड़ी पर विरोध में बैठ गए। कई राजा-महाराजा उनके साथ आ गए। ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा। लेकिन मालवीय जी को यह आशंका बनी रही कि गंगा के साथ छेड़छाड़ होगी, अपनी मृत्यु शैया पर उन्होंने जस्टिस काटजू से कहा कि मुझे वचन दो कि यह नहीं होने दोगे। काटजू ने कहा, क्वमहाराज यह कैसे होगा? अब तो आजादी आ रही है।´ लेकिन मालवीय जी की आशंका सच साबित हुई। हम प्रकृति के विपरीत चलते गए। संवेदनशील हिमालय की वेदनाओं को सत्ताधारियों और वैज्ञानिकों की व्यापारिक सोच तो महसूस न कर सकी, लेकिन यहां ग्रामीण महिलाओं ने समझा, वनों की व्यापारिक कटाई के खिलाफ उन्होंने चिपको आंदोलन चलाया और अस्सी के दशक के शुरू में इस हिमालयी क्षेत्र में 1000 मीटर ऊंचाई के क्षेत्र में हरे पेड़ों की व्यापारिक कटाई पर पाबंदी लगवाने में सफलता प्राप्त की। बाद में हिमाचल प्रदेश में भी इसी तरह की पाबंदी लगी।
अब जल संकट का मुकाबला कैसे करें? जल का आयात नहीं किया जा सकता। हमें एक त्रि-सूत्री कार्यक्रम अपनाना होगा। इसका पहला सूत्र जल के उपयोग में किफायत बरतनी होगी । पानी की तरह बहाने के बजाय पानी की तरह बचाने´ का मुहावरा अपनाना होगा। एक बार गांधीजी आनंद भवन, प्रयाग में एक लोटे पानी से मुंह-हाथ धो रहे थे। जवाहरलाल जी ने मजाक करते हुए कहा, क्व1यों बापू, इतनी कंजूसी 1यों? यहां तो गंगा-जमुना बह रही हैं।´ बापू ने तपाक से उत्तर दिया, कोई मेरे लिए ही थोड़े बह रही हैं।´ हमें कृषि और उद्योगों में, जल का उपयोग तथा प्रदूषण कम से कम करने के तरीके ढूंढने होंगे। जल संचय की राजस्थान की व्यवहारिक पद्धति को पूरे देश में अपनाने का अभियान चलाना होगा। वहां पर हर घर की छत के पानी को संग्रह कर एक टंकी में जमा किया जाता है। हमें तालाबों और पोखरों को पुनर्जीवित करना होगा। ऐसी व्यवस्था हो, जिससे वाष्पीकरण कम से कम हो।
भारत में वृक्षों की पूजा के पीछे अंधविश्वास नहीं है। ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय के शिक्षक लुई फाउलर स्मिथ अपने शोधकार्य के सिलसिले में पांच वर्षो तक पूरे भारत के जंगलों में घूमे। उन्होंने हिंदुओं की वृक्ष पूजा की परंपरा का वैज्ञानिक आधार बताया है। हमारी संस्कृति ही अरण्य संस्कृति थी। हमारे गुरुकुल वनों में थे।
भविष्य की खेती वृक्ष खेती होगी। पानी की कमी और बढ़ती जनसंख्या का यही एकमात्र हल है। वृक्ष खेती से पैदावार पांच से दस गुना अधिक होगी। मिट्टी का क्षरण रुकेगा। वृक्ष वर्षा लाते हैं, जिनकी पत्तियों से पानी टप-टप करके गिरता है, जिसे मिट्टी स्पंज की तरह चूस लेती है। भूटान में जहां घने वन हैं, वहां चुक्खा नदी के पानी के बहाव में जाड़े और बरसात केबीच एक और सात का अंतर है। जबकि टिहरी में भागीरथी में एक और सत्तर का।
गांधी के सपनों का स्वराज अभी कायम होना बाकी है। वह तो तभी होगा, जब गांव-गांव भोजन, वस्त्र, शिक्षा और आवास की अपनी आवश्यकताओं में स्वावलंबी होगा। वृक्ष खेती से वह सपना पूरा होगा। हमें खाद्य के लिए काष्ठ फल, खाद्य बीज, तैलीय बीज, मीठे केलिए शहद देने वाले फूल और मौसमी फल, चारा और वस्त्र के लिए रेशम देने वाले वृक्ष, कपास-रेशम के लिए शहतूत, पशुओं के लिए चारा देने वाले वृक्ष प्रजातियों का विभिन्न पारिस्थितिकीय क्षेत्रों के लिए चयन करना होगा। इस कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। हिमालय जो देश की सीमाओं का प्रहरी है और देश की पारिस्थितिकीय सुरक्षा का स्त्रोत है, इसकी प्रथम प्रयोगशाला बने।
ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार
संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के मुताबिक गुजरे सौ सालों में वैश्विक तापमान में 0.6 डिग्री से. की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इस कारण हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की र3तार भी तेज हुई है। हालांकि, इस रिपोर्ट को लेकर दुनिया के अलग-अलग देशों के वैज्ञानिकों की अलग-अलग राय है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कारण जो भी रहे हों, हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।
इस क्रम में यदि पिछले 117 सालों की अवधि में ग्लेशियरों के पिघलने की दर देखें तो यह गंगोत्री में 18.1 मीटर, भागीरथी खड़ग में 15.3 मीटर, मयाड़ में 11मीटर, बड़ा शिगरी में 17 मीटर और जेमू में 15.1 मीटर रही है। आने वाले समय में यह हमारे देश के लिए चिंता का एक बड़ा विषय है। लेकिन इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों से लगता नहीं कि हम बहुत सावधान हो पाए हैं। यदि ग्लेसियरों के पिघलने की यही र3तार कायम रहती है तो हमें बड़े संकट का सामना करना पड़ सकता है।