अनदेखी का शिकार गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान
वर्ष 1989 में उत्तर प्रदेश सरकार की वन्य जीव संरक्षण अधिनियम की धारा 35(1) के तहत लंका (भैंरोंघाटी) ब्रिज से ऊपर का 2,39,002.4 हैक्टेयर क्षेत्र को गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया था। दावा किया गया कि इससे वन्य जीवों तथा चीड़बासा व भोजबासा के पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण भोजपत्र के वृक्षों का संरक्षण व संवर्द्धन होगा। गंगोत्री से आगे गौमुख मार्ग पर वन विभाग की कनखू चौकी पर यात्रियों एवं पर्वतारोहियों की गहन जाँच की जाती है। यहाँ वन विभाग पास चैक करने में जितना मुस्तैद दिखता है, उतना ही बेपरवाह उद्यान क्षेत्र में नियम-कानूनों को लागू करने में दिखता है। कनखू चौकी पर उपल्ब्ध जानकारी के अनुसार प्रतिदिन यहाँ से भोजवासा तक मात्र 15 खच्चरों को जाने की अनुमति है। लेकिन 25 से 28 खच्चर भोजवासा तक अमूमन रोज ही जाते हैं। नियमानुसार यहाँ लकड़ी जलाना पूर्ण रूप से प्रतिबंधित है। मगर ये नियम भी सिर्फ कागज और साइन बोर्डस तक ही सीमित है। राष्ट्रीय पार्क घोषित होने के बाद पार्क क्षेत्र के भीतर किसी भी तरह का निर्माण नही होना चाहिए था। बावजूद इसके कई आश्रम और डेरे यहां चालाए जा रहे हैं। विभागीय अनदेखी या सांठगांठ से गंगोत्री राष्ट्रीय पार्क के भीतर की ये स्थितियाँ पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक माहौल पैदा कर रही हैं। उद्यान के कर्ताधर्ताओं की कार्यशैली व कार्यवाहियों पर भी एक बहुत बड़ा सवालिया निशान खड़ा होता है। यदि गंगोत्री ग्लेशियर का अस्तित्व लम्बे समय तक कायम रखना है तो इस मुद्दे को गंभीरता से लेना होगा। आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से जूझ रही है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि राष्ट्रीय घोषित उद्यानों में सख्ती से नियमों का पालन हो।